आत्मिक शुद्धि का महापर्व पर्युषण

आत्मिक शुद्धि का महापर्व पर्युषण


-डॉ. सुनील जैन ‘संचय', ललितपुर


पर्व हमारे जीवन में नई चेतना झंकृत करते हैं। पर्व हमारे भीतर उत्साह व धार्मिकता पैदा करते हैंजैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण (दसलक्षण धर्म) महापर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। पर्युषण महापर्व हमारे भीतर के प्रदूषण को खत्म करने के लिए आता है। इस महापर्व का जैनधर्म में अत्यधिक महत्व है। यह पर्व आत्मा की सजावट के लिए आता है। पर्युषण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है। पूजा, अर्चना, आरती, संत समागम, त्याग, तपस्या, उपवास में आधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है और दैनिक व्यावसायिक तथा सावध क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास किया जाता है। संयम और विवेक का प्रयोग करने अभ्यास चलता रहता है। जैनधर्म में सभी पर्यों का राजा पर्यषण महापर्व है। इसे आत्मशोधन का पर्व कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाया जा सकता है। जैन परंपरा में यह दस दिवसीय महापर्व आध्यात्मिक दीपाली की तरह है । इसमें आत्मा की उपासना की जाती है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी बन सकता है।


भारत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जापान, जर्मनी व अन्य अनेक देशों में भी यह पर्व धूमधाम से श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान विभिन्न धार्मिक क्रियाओं से आत्मशुद्धि की जाती है व मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास किया जाता है ताकि जन्म मरण के चक से शीघ्र मुक्ति पायी जा सके।


जैन परम्परा के अनुसार यह पर्व भादों, माघ और चैत्र के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी से लेकर चतुर्दशी तक वर्ष में तीन बार आता है। आता तो बर्ष में तीन बार है किन्तु बड़े उत्साह से विशालरूप में मनाने की परम्परा सिर्फ भाद्रपद के महीने की ही है। जैनधर्म के दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में इस पर्व को मनाने की परम्परा है। विशेष यह है कि श्वेताम्बर समाज भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी से भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक सिर्फ 8 दिन का मनाते हैं। जबकि दिगम्बर समाज में 10 दिन का प्रचलन है। यह एक मात्र आत्मशुद्धि और आत्म जागरण का पर्व है।


पर्युषण पर्व एक ऐसा सार्वभौम पर्व है जिसमें आराधक सांसारिक कार्यों से थोड़ी निवृत्ति लेकर कोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों से बचकर संयम पूर्वक धर्म की आराधना करते हैं। दस दिन चलने वाले इस पर्व में प्रतिदिन धर्म के एक अंग की भलीभांति आराधना करके उसे जीवन भर के लिए हृदयंगम करने का प्रयास किया जाता है। इसलिए इसे दसलक्षण पर्व भी कहा जाता है।


आत्म विशुद्धि के लिए इस पर्व के दौरान दस दिन तक कमशः दस धर्मों की आराधना की जाती है। जिन दस धर्मों की आराधना की जाती हैं वे इसप्रकार हैं :


1. उत्तम क्षमा : पहले दिन उत्तम क्षमा धर्म की आराधना की जाती है। सहनशीलता का विकास इस धर्म का उददेश्य है। क्रोध को पैदा न होने देना। क्षमा गुणों का चिंतन करना। सभी के प्रति क्षमाभाव रखना। कोध की दिनों-दिन बढ़ती लहर पर अंकुश लगा कर ही हम पारिवारिक और सामाजिक शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।


2 उत्तम मार्दवः चित्त में मुदता व व्यवहार में नम्रता होना। सभी के प्रति विनयभाव रखना।


3. उत्तम आर्जव : भाव की शुद्धता। जो सोचना सो कहना। जो कहना सो वही करना।


छल, कपट का त्याग करना। कथनी और करनी में अंतर नहीं करना। 


4. उत्तम शौच : मन में किसी भी तरह का लोभ न रखनाआसक्ति घटाना। न्याय नीति पूर्वक कमाना।


5. उत्तम सत्य : यथार्थ बोलना। हितकारी बोलना। थोड़ा बोलना। प्रिय और अच्छे वचन बोलना।


6. उत्तम संयम : मन, वचन और शरीर को काबू में रखना। संयम का पालन करना। मन तथा इंन्द्रियों पर काबू रखना।


7. उत्तम तप : मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए उसके लिए तपस्या करना। तप का प्रयोजन मन की शुद्धि है। तप से आत्मा पवित्र होती है।


का 8. उत्तम त्याग : सुपात्र को ज्ञान, अभय, आहार और औषधि का दान देना तथा राग-द्वेषादि कषायों का त्याग करना।


9. उत्तम आकिंचन : किसी भी चीज में ममता न रखना। अपरिग्रह को स्वीकार करना। आत्मा से अन्य पर में एकत्व की तल्लीनता को त्याग अपने आप में लीन हो जाना आकिंचन है।


10. उत्तम ब्रहाचर्य : सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने को पवित्र रखना। ब्रहाचर्य का पालन करना। चिदानंद आत्मा में लीन होना।


समाज के सभी पुरूष , महिलाएं, बच्चे, युवा सभी पर्व को पूर्ण निष्ठा और आस्था के साथ मनाते हैं। सांसारिक मोह-माया से दूर मंदिरों में जिनेन्द्र भगवान की पूजा, अभिषेक, शांतिधारा, विधान, जाप, उपवास, प्रवचन श्रवण आदि दस दिन तक किया जाता है। सम्पूर्ण संसार में यह एक ऐसा पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सदप्रयास करता है। यह पर्व आत्मा में रमण करने का महापर्व है। आत्मशोधन व पर्व का उददेश्य है। यह पर्व अहंकार व ममकार के विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है।


आज भौतिकता की चकाचौंध में भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में यह पर्व जिंदगी को जीने का नया मार्ग प्रशस्त करता है। यह पर्वराज हमारी चेतना पर धर्म का ऐसा संस्कार डालता है जिससे कुरीतियों पर कुठाराघात और संस्कारों का शंखनाद होता है। अपने को जीतने का यह पर्व आत्म जागरण करता है। इस पर्व का महत्व त्याग के कारण है, आमोद-प्रमोद का इस पर्व में कोई स्थान नहीं है। इस पर्व का संबंध खाने और खेलने से न होकर खाना और खेलना त्यागने से है। ये भोग का नहीं, त्याग का पर्व है।


आज जिस तरह से नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, पश्चिमी हवा में संस्कारों का दम घुट रहा है ऐसी परिस्थितियों में यह पर्व व्यक्ति के जीवन में सुसंस्कारों का नया संचार करने में माध्यम बनता है पर युवा पीढी के लिए यह पर्व उनकी उदास, निराश, तनाव युक्त जीवनशैली को उत्सव से जोड़कर नयी स्फूर्ति प्रदान करता है। संस्कारों को सुदृढ़ बनाने और अपसंस्कारों को तिलांजलि देने का यह अपूर्व अवसर होता हैइस पर्व के दस दिन इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनमें व्यक्ति स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का प्रयत्न करता है। ये दस दिन नैतिकता और चरित्र की चौकसी का काम करते हैं और व्यक्ति को प्रेरित करते हैं कि वह भौतिक और सांसारिक जीवन जीते हए भी आध्यात्मिकता को जीवन का हिस्सा बनाकर अपना कल्याण कर सकता है।


यह व्यक्ति पूजा का नहीं, गुण-पूजा का पर्व है। यह पर्व जीवमात्र को क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि विकारी भावों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। यह एक ऐसा अभिनव पर्व है जिसमें अपने ही भीतर छिपे सद्गुणों को विकसित करने का पुरूषार्थ किया जाता है। अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने का यह पर्व एक सर्वोत्तम माध्यम है। जैनधर्म में विकारों से मुक्ति के दस उपाय बताते गए हैं। उन्हें धर्म के दस लक्षण भी कहा जाता है। उन्हीं दस-लक्षणों को अपने आचरण में उतारने के लिए जो साधना करता है, वह एक दिन निर्विकार हो जाता है। जिसके आचरण में ये उतर जाते हैं वह सुख और आनंद के वातावरण में विचरण करने लगता है।



हम सभी को पता है कि इस वर्ष कोरोना संक्रमण के चलते मंदिरों में यह महापर्व मनाना संभव नहीं पायेगाजो साधना शिविर लगते थे वह भी नहीं हो पायेंगे। पूजन-विधान, प्रवचन आदि एकसाथ नहीं कर पायेंगे। लेकिन ऐसे में हमें अपने विवेक से काम लेना है और आत्म-साधना उसी प्रकार करने का प्रयास करना है जैसा विगत वर्षों में करते आये हैं, बस अंतर इतना है इस बार यह महापर्व अपने घर पर ही पूर्ण मनोयोग से मनाना है। कोरोना काल में हम कुछ इस तरह से दस दिन इस महापर्व को मनाने का प्रयास कर सकते हैं-


1. अपने घर पर प्रातः पूजनादि को विधि विधान के साथ सम्पन्न करें। दस दिन तक घर पर ही रहें, बाहर जानें, वाहन आदि का त्याग कर सकें तो अति उत्तम होगा। प्रातः पूजन से पूर्व ध्यान आदि करें। युवा पीढ़ी को घर पर ही पूजा-पाठ आदि सिखाने का यह अच्छा अवसर है।


2. घर पर पूर्णतः शुद्ध वस्त्र धोती-दुपट्टा में शुद्ध धुली हुयी पूजन सामाग्री से ही पूजनादि करें।


3. धार्मिक चैनलों पर आने वाले लाइव कार्यक्रमों का अनुशरण करें। धार्मिक चैनलों पर आने वाले अभिषेक, शांतिधारा, पूजन, विधान, प्रवचन आदि कार्यक्रमों का उसी तरह अनुशरण करें जिस तरह मंदिर में परी विनय के साथ करते हैं।


4. प्रातः, मध्यान्ह, रात्रि में सामायिक करें। मंत्रों की जाप एवं विभिन्न पाठों को पढ़ना।


5. दिन में एकबार/ दो बार शुद्ध मर्यादित भोजन मौन पूर्वक करना । भोजन के पूर्व तथा पश्चात कार्योत्सर्ग जरूर करें। कोशिश करें दिन में एकबार ही भोजन करें , शाम को आवश्यकतानुसार जल, दूध, फल आदि शक्ति के अनुसार ग्रहण करें।


6. बाजार के रेडीमेड मसाले अथवा भोजन सामग्री आदि का पूर्णतः त्याग।


7. स्नानादि में हिंसक वस्तुओं का प्रयोग न करें।


8. चाय-कॉफी आदि का त्याग करें। सभी प्रकार के नशीले पदार्थों, गुटका-तम्बाखू आदि बाजार की वस्तुओं का त्याग।


9. शुद्ध दूध ही उपयोग में लें।


10. शक्ति के अनुसार अंग्रेजी दवाईयों का त्याग करें, विशेष परिस्थितियों के लिए छूट रखें


11. सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग न करें।


12. घर में जमीकंद का पूर्णत त्याग, रात्रि में परिवार का कोई भी सदस्य भोजन न करें।


13. मर्यादित और शुद्ध पानी का उपयोग करें।


14. घर पर जो भी शास्त्रादि हैं उनका स्वाध्याय करें। दोपहर में विधानादि में अपने समय का सदुपयोग करें। दस दिन तक अधिकतम समय धर्मध्यान में लगायें सांसारिक अन्य कार्यों से निर्वत्ति बनाने की कोशिश करें। ब्रहाचर्य का पालन करें।


15. शाम को अलोचना पाठ, प्रतिक्रमण पाठ आदि करें।


16. धार्मिक चैनल पर आने वाले लाइव कार्यक्रम, संतो के प्रवचनादि देखें वाकी अन्य टीवी चैनल का त्याग अथवा कम से कम देखें।


17. दस दिन तक पूजनादि के लिए घर में एक निर्धारित स्थान को नियत कर उसकी साफ-सफाई और शुद्धता का ध्यान रखें। 18. शक्ति के अनुसार व्रत-उपवास रखें।


ज्ञान-कुसुम भवन, गांधीनगर, नईबस्ती, ललितपुर,suneelsanchay@gmail.com